Saturday, September 26, 2020

कोरोना को रोना

श्री
एक पुराना चुटकुला ,माता बच्चे के अध्यापक से – मास्टरजी मेरा बच्चा बड़ा कोमल है , इसे समझाना हो या डांटना हो तो इसे कुछ मत कहना ,इसके पास वाले बच्चे को डांट देना ये भी समझ जायेगा | फ़िलहाल ये चुटकुला हकीकत हो चूका है , समझे ...........पड़ोसी हे न अपना , चीन | हाल  देखा उसका
कभी सोचा ये हाल क्यूँ है उसका ,नहीं न ...अजी वंहा वायरस फैल गया है न करोना ,वो कुछ करने नहीं दे रहा |क्या करोना कोई नया वायरस है , जिसका ये एक दम से आक्रमण हो गया ,तो जवाब है नहीं, पर ये नए रूप में आया है तयारी के साथ जिसका प्रतिरोध न तो उपलब्ध दवाएं कर पा  रहीं ,न ही हमारा शरीर| ऐसी स्थिथि क्यूँकर आयी ....कुछ सोचा|
चलिये थोडा में समझाने का प्रयास करूँ, अपनी अल्पमति से |आयुर्वेद का एक सामान्य सा सिद्धांत है , सभी रोग मन्दाग्नि से होते हैं,अब ये मन्दाग्नि क्या है ? शरीर में बाहर से प्रविष्ट हुये खाद्य पदार्थों को शरीर के अनुरूप परिवर्तित करना जिस से शरीर उन्हें समग्र रूप से गृहण कर स्व रक्षण/पोषण/वर्धन जो भी यथावश्यक हो, कर सके| अब मन्दाग्नि होती क्यूँ है? इसके कुछ प्राकृत कारण हैं यथा ऋतु (ग्रीष्म/वर्षा) यथा काल (रात्री/उषाकाल) आयु (वृद्ध )|और  अप्राकृत कारणों में शास्त्रोक्त मिथ्या आहार विहार| पुनश्च: ये मिथ्या आहार विहार क्या हैं,सामान्य अर्थों में देश,काल और वातावरण के विरुद्ध किये जाने वाले आहार और विहार यथा ठण्ड के दिनों में icecream खाना,भरे पेट पर पुनश्च: भोजन करना ,भरे पेट से दक्षिण कुक्षि से आराम करना या मेहनत का काम करना |
मूल रूप से हम भारतीयों की भोजन वयवस्था जिस विज्ञानं के अनुरूप है,उसे सामान्य रूप से आयुर्वेद के नाम से जाना जाता है,आयुर्वेद के प्रथम सिद्धांत स्वस्थ के स्वास्थ का रक्षण जिन विधियों से किया जाता रहा है उनमे से सर्वप्रमुख हम भारतीयों के रसोई घर में ही निहित है अर्थात इस विज्ञान का एक बड़ा भाग हमारी रसोई में समाया हुआ है,जब से हमारी खान पान व्यवस्था रसोई से निकलकर व्यवसायीक प्रतिस्पर्धा वाले लोगों के हाथों में पहुंच गई है ये मूल उद्देश्य ख़त्म हो कर के मात्र स्वाद ,और उदरपूर्ति का मात्र रह गया है स्वस्थ नाम का कंटेंट इस में से गायब है|
ओजस्वी औषधालय , हापुड़ में हमारा प्रयास मूल रूप से सभी रोगी और उनके परिवार जनों को ये समझाने में रहता है के भोजन आपका ( जो भी आप मुख से गृहण कर रहे हैं) औषधि से ज्यादा महत्वपूर्ण है उसे अपनी आवश्यकताओं के अनुसार लीजिये,हमरी जरूरत कम से कम पड़ेगी| हमारे इसी सिद्धांत के कारण हमे मात्र रुग्ण नहीं बल्कि परिवार प्राप्त होतें हैं,जिस कारण से हम अपने आप को ओजस्वी औषधालय मात्र न मानकर ओजस्वी औषधालय परिवार मानते हैं|
हमारा भोजन न केवल हमारी दैनिक आवश्यकताओं को पूर्ण करता है वरन सही रूप से किआ हुआ भोजन (आहार) ओर् सामायिक क्रिया कलाप( विहार) न केवल हमें स्वस्थ रखतें है अपितु रोगों से लड़ने के भी सक्षम बनाते हैं| सामान्य रूप से औषधालय में आने वाले नवीन रोगी so called over medication का शिकार होते हैं| रोग का मूल कारण समझे बिना ,बिना व्यवस्था पत्र के औषधि सेवन करने वाले महानुभवों का एक बहुत बड़ा प्रतिशत हमारे आस पास मोजूद है ,और इन सबके दुष्परिणाम आने पर भी हम सब चेतने को तैयार नहीं| ख़ैर  ये भी शिक्षा का ही विषय| मूल विषय पर आते हैं ----
चीन के लोगों की खान पान व्यवस्था के चित्र आजकल हम सभी के whatsapp और अन्य social media plateforms पर उपलब्ध हैं, मुझे  लगता है उपर लिखा विवरण ये सब समझाने के लिए पर्याप्त है| अपने क्षेत्रीय और आंचलिक भोजन को अपनाइए ,इसके लिए अपने निकट के आयुर्वेदिक पद्वीधरों से संपर्क करें ,दादा दादी नाना नानी की सहायता लें|आपकी शंकाओं का  inbox और whatsapp 9897197491 पर स्वागत है|
ओजस्वी आयुर्वेद परिवार आपके स्वस्थ एवं खुशहाल जीवन की कामना करते हैं | धन्यवाद|

Thursday, September 10, 2020

 पुनश्च : एकदा

वैद्य मित्रों के लिए मनोगत,
मित्रों!
जीवन मे अनुभव चीजों के अर्थ किस तरह से बदल देता है,ये जानना भी किसी चमत्कार के जैसा ही है।
आयुर्वेदाचार्य ,प्रथम वर्ष ,वैद्यकीय सुभाषित साहित्यम ,रणजीत राय देसाई जी की पुस्तक में एक श्लोक है,जो सामान्य अर्थों में एक साधारण सा श्लोक दृष्टिगोचर होता है ,जिसका कोई महत्त्व हमें उस समय शायद ही विषय सामयिक लगा होगा।
सद्य फलन्ति गान्धर्वम ,मासमेकम पुराणकम।
वेदा फलन्ति कालेषु ,ज्योतिरवैद्यो निरन्तरं।।
निश्चय ही अनेकानेक वैद्यमित्रों को शायद स्मरण भी न हो,क्योंकि थोड़ा लीक से हटकर श्लोक है।साधारण रूप से इसका अर्थ पुस्तक के ऐसा लिखा है,के गान्धर्व विद्या ,नृत्य गायन शीघ्रता पूर्वक फल देने वाली होती है,पुराण का पाठ अपना फल देने के लिए महीने भर की मेहनत करवाता है।वेदों के फल बहुत काल मे मिलते हैं और ज्योतिष और वैद्यक के फल निरंतर मिलते रहते हैं।
मेरे वैद्यक जीवन के प्रारम्भ में ,अपने नगर के एक प्रतिष्ठित चिकित्सालय में जो कि धार्मिक चिकित्सालय था,में सेवा देने के साथ साथ प्रारम्भ हुआ था, एक भद्र महिला मेरे पास चिकित्सा के लिए आई थी।मैं नया नया वैद्य,ओर रोगिणी पुरानी रोग से पीड़ित।रोगिणी की मात्र एक समस्या के मेरे पूरे शरीर मे चींटियां चलती है हर वक़्त।महिला प्रतिष्टित परिवार से थीं ,लगभग आधुनिक चिकित्सा के सभी निदान कर चुकी थी कोई लक्षण नही था । सम्मिलित रुप से सभी चिकित्सक इसे मनोव्यथा मान कर चिकित्सा कर चुके थे,ओर उक्त चिकित्सा से भी कोई लाभ नहीं था, रुग्णा औषधालय में मेरे समीप बैठ कर अपनी सम्पूर्ण काया को कभी यंहा कभी वंहा मलती थी ।आयु लगभग उस समय 60 वर्ष के आस पास होगी।बड़ी ही कातर दृष्टि से मेरी तरफ हाथ जोड़ती ,वैद्य जी ,कुछ उपकार कर दो या जहर का इंजेकशन लगा दो ,में बहुत थक गई हूं।
पूज्य गुरुदेव के स्मरण के साथ औषधि प्रारम्भ की।
रोग का अधिष्ठान प्रश्न से संपुर्ण त्वचा थी,मनोवह स्रोट्स के अनुसार मज्जा अधिष्ठान थी।दोनों ही वात के अधिष्ठान मानकर वातशामक ,अनुलोमक औषधि दे दी गई ।
3 दिन बाद रुग्णा कुछ संयत थी निद्रा आ गयी थी, कातरता अल्प थी।
शुद्ध पित्तल प्रकृति की सी रुग्णा, उसके 3 दिन बाद पुनः पहली अवस्था मे ।औषधि की कभी कारमुक्ता दिखती कभी व्यर्थ ।मित्रो कभी कभी किसीरोगी की स्थिति रोगी से ज्यादा वैद्य को(dr को नहीं,कारण संतान वत रोगी को संभालने का निर्देश केवल आयुर्वेद शास्त्र का है,आधुनिक शास्त्र का नही,मेरे बहुत से मित्रों ने इसे महसूस किया होगा।)संताप दे देती है।ऐसी ही एक स्थिति में रुग्णा से बातचीत करते समय ,अचानक से रुग्णा बोली ,ऐसा लगता है के जैसे भूखी चीटियां कुछ खाने को मेरे पूरे शरीर मे दौड़ लगा रही है,अनायास मेरे मुँह से निकल गया के भूखी है!तो इन्हें भोजन कर दो।अचानक से वाग्भट ,हृदय का कुष्ठ/श्वित्र चिक्तिसा का व्रत,दम यम सेवा,वाला श्लोक स्मरण हो आया ।मेरा द्वितीय अनुराग ,आयुर्वेद के अतिरिक्त ज्योतिष होने के कारण से ,मैंने औषधि के साथ साथ रुग्णा को प्रतिदिन चींटियों को सिता मिश्रित भुर्जित पिष्ट गोधूम डालने के लिए प्रेरित किया तीसरे दिन से रुग्णा स्वस्थ थी।उसके जन्मांग का अध्धयन कर उसे लगभग 3 माह औषधि दी गई।साधारण रूप से।अनुलोमनार्थ अविपत्तिकर चूर्ण
मज्जागत वातशामक ,ज्योतिष्मती तेल, सारस्वत चूर्ण,गोघृत
मित्रो ये एक ऐसे घटना थी ,जिसने कुछ चीजो कि देखने की दृष्टि बदल दी।मेरे दोनी विषय होने के कारण मुझे ऊपर वाला श्लोक हमेशा ही प्रिय रहा ।परंतु उस रुग्णा के बाद मुझे कुछ अर्थ यूं प्रतीत होने लगा,शायद विद्यार्थी हूँ इसलिये
नृत्य गायन शीघ्रता से आत्मसात किये जा सकते है,पुराणो को जानने के लिए माह भर का अध्धयन आवश्यक है।वेद वर्षानुवर्ष लग जाने के बाद अपने अर्थ को प्रदर्शित करते हैं।और आयुर्वेद और ज्योतिष को जान ना है तो सदैव,निरंतर ,अनवरत अभ्यास करना पड़ेगा। आयुर्वेद करना है तो आयुर्वेद में जीना ,आयुर्वेद में सोचना आयुर्वेद में हंसना ओर आयुर्वेद में रोना पड़ेगा।दूसरे रास्ते ,पैथी का मोह जब तक नहीं छूटेगा ,आयुर्वेद में उन्नति का पथ तब तक अवरुद्ध ही रहेगा।
किसी आयुर्वेद प्रवर को मेरे कथन में त्रुटि लगे तो विद्यार्थी समझ कर क्षमा करने की कृपा करें।मेरे कोई मित्र मेरे कथन से प्रेरणा लेकर आयुर्वेद अनुगामी बन जाएं तो मेरा ये छोटा सा लेखन सफल हो ,ऐसी मनो कामना सहित

ज्योतिरवैद्यो निरन्तरं